
तात्कालिक विधानसभा चुनाव और हमारा समाज
आलेख:-नरेन्द्र सिंह,समाजशास्त्री
इस समय देश के पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव का दौर चल रहा है। इनमें से उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के विषय में मैं जो आकलन कर पा रहा हूँ उसके लक्षणों के अनुसार यहाँ मुस्लिम मतदाता अपने निर्धारित ऐजेंडे के अनुसार एक ओर जहाँ केवल भाजपा को हराने हेतु मतदान करने के लिए प्रतिबद्ध दिख रहा है वहीं हिन्दू मतदाता जातीय आधार पर बहुत ज्यादा विभाजित नजर आरहा है। इस बार भाजपा को यह नुकसान होता हुआ दिख रहा है कि चुनाव में हिन्दू और मुस्लिम ध्रुवीकरण की स्थिति विकसित होती नजर नहीं आ रही है। यद्यपि यह बात अलग है कि उत्तर प्रदेश की वर्तमान सत्ता के विरुद्ध जितने भी राजनीतिक संगठन चुनावी मैदान में हैं उनके पास ऐसा कोई एजेंडा नही है जो समाज का वैचारिक तथा क्रियात्मक नेतृत्व करता हो या इनसे किसी अन्य बुनियादी सुधार की आशा की जा सकती हो; एक और जहाँ सत्ता पक्ष के पास वही घिसे-पिटे संवाद हैं तो दूसरी ओर विपक्ष के पास भी वैसे ही स्तर हीन एवं राजनीतिक नौटंकी के विषय हैं।
यह बात ठीक है कि गत वर्षो में भाजपा के शासन काल में देश की बड़ी समस्याएं जैसे कश्मीर एवं राम मंदिर के वाद का उन्मूलन हुआ है तो पूर्वोत्तर भारत की स्थिति तथा आतंकवाद पर बहुत हद तक नियन्त्रण भी हुआ है ; देश के सैन्य ढांचे में बहुत अच्छा सुधार हो रहा है, रेल तथा सड़क परिवहन मे भी कार्य की अच्छी प्रगति दिखाई दे रही है अर्थात देश के इंफ्रास्ट्रक्चर पर अच्छा काम हो रहा है। लेकिन प्रश्न यह भी है कि भारत का वर्तमान शासक वर्ग हमेशा की तरह भारत के समाज को स्थानीय मुद्दों पर संतुष्ट करने में असमर्थ रहा है; इसका कारण क्या है? मेरे विचार से इस प्रश्न का उत्तर यह है कि भारत के लोग या तो स्वार्थवश जान-बूझकर शासन पद्धति एवं समाज की परिभाषा से अनभिज्ञ बनकर रहते हैं या जानकारी नही करना चाहते! क्योंकि जो कार्य शासन का नहीं होता है जब व्यक्ति उसके विषय में यह अवधारणा बना लेता है कि शासन ने मेरा यह कार्य नहीं किया है तो ऐसे व्यक्ति को संतुष्ट करना असम्भव हो जाता है। जैसे आम आदमी को रोजगार प्रदान करना शासन का कार्य नहीं हो सकता है; क्योंकि शासन ऐसा करेगा तो उसे समाज के संसाधनों पर नियन्त्रण करने की आवश्यकता होगी और जब यह प्रयास किया जाएगा तो समाज में अघोषित गुलामी के विषय का प्रसार होगा।लेकिन आम आदमी को प्रत्यक्ष गुलामी भी मंजूर नही होती है। वस्तुतः इस सन्तुलन को बनाने के लिए जनता को यह सच स्वीकार करना चाहिए कि वह व्यवस्था चलाने के लिए शासन को जो टैक्स देती है उसके द्वारा सत्ता को लोगों को रोजगार देने का अधिकार नहीं हो सकता है; क्योंकि सत्ता को धन की उत्पत्ति का अधिकार नहीं होता है बल्कि उसे केवल समाज की व्यवस्था चलाने का अधिकार होता है और इस कार्य के लिए समाज, सत्ता को टैक्स देता है। समाज तथा सत्ता को इस विषय पर अपना दृष्टिकोण आम जनता के सामने स्पष्ट करना चाहिए तथा ऐसी व्यवस्था बनाने के लायक कानून भी बनाने चाहिए। लेकिन अफसोस कि भारत में न तो विचार दृष्टाओं ने,न धर्मगुरुओं ने,न शासन ने और न जनता ने यह बात कभी समझी है और न ऐसा करने का कभी प्रयास किया है। उलटे ये सभी शासन पर अनावश्यक लोक लुभावनी योजनाएं लागू करने के लिए दबाव बनाए रखती हैं और शासन जब ऐसा करता है तो इन प्रयासों का समाज को तो कोई समुचित लाभ मिलता नहीं है लेकिन इससे शासन का बजट घाटा बढ़ता है और परिणाम स्वरूप आम आदमी महंगाई जैसे विषय से त्रस्त होता है। क्योंकि इस बजट घाटे को कम करने के लिए शासन को समाज पर अतिरिक्त टैक्स लगाने पड़ते हैं।शासन भी ऐसा इसलिए करता है कि उसे लोकहित के द्वारा जनता को अपने वश में रखने का अचूक हथियार मिल जाता है।.....जरा सोचिए शासन, राज्य के कोष से जनता की जो भी सहायता करता है वह धन उसे जनता से ही टैक्स के रूप में प्राप्त होता है और शासन की धृष्टता देखिए कि वह उसे उसके दाता को ही यह कहते हुए अनुदान के रूप में दे देता है कि शासन लोकहित करने के लिए कटिबद्ध है।
खैर मैं इस विवेचना में यह भी कहूँगा की इस समय देश में चल रही राष्ट्रवादी विचारधारा की सरकार ने भी ऐसा कभी स्पष्ट करने की कोशिश नहीं की कि जनता के बीच इस मूल विषय पर चिन्तन हो और शासन चला रहे लोगों पर हमेशा के लिए यह वैचारिक प्रभाव बनाना चाहिए की सत्ता, समाज की सहायता करने के लिए नही बल्कि व्यवस्था के रूप में कार्य करने के लिए बाध्य होती है। लेकिन यह विवेचना तो हमारी संवैधानिक व्यवस्था के अस्तित्व पर भी प्रश्न खड़ा कर देती है; इस विषय पर फिर कभी लिखना ठीक रहेगा। फिलहाल विषय यह है कि तात्कालिक विधानसभा चुनाव के विषय में जनता के मतदान करने के विषय में कैसे लक्षण दिखाई दे रहे हैं? देखिए यह स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता के बाद भारत की संवैधानिक व्यवस्था के नेतृत्व में जैसे साम्प्रदायिक, जातीय, क्षेत्र, भाषा, उम्र-लिंग, गरीब-अमीर, छोटे-बड़े के भेद में उलझे हुए सामाजिक ढांचे का विकास हुआ है उसके अनुसार भारत की जनता को एक लोकतान्त्रिक समाज नहीं कहा जा सकता है। ऐसे देश अथवा समाज में धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं न्यायिक स्थिरता का स्थापित होना असम्भव होता है जिस देश अथवा समाज की राजनीतिक व्यवस्था का ढाँचा समाज के प्रति उत्तरदायी नही होता है और न व्यवस्था के विषयों की मूल परिभाषा के आधार पर निर्मित होता है। यह दृष्टिकोण भारत की सार्वदेशिक व्यवस्था के लिए है। इसलिए वर्तमान विधानसभा चुनाव भी इस आकलन के बाहर का विषय नहीं है। लेकिन वर्तमान व्यवस्था के अन्तर्गत जो विधानसभा चुनाव हो रहे हैं उनके अनुसार जो भी सरकार बनेगी वह समाज की किसी भी प्रकार की अस्थिरता का कोई उन्मूलन नही कर सकेगी। क्योंकि भारत में पर्याप्त समय तक समाजवादी दृष्टिकोण से व्यवस्था का संचालन होता रहा है और उसका कभी कोई ठीक परिणाम नहीं आया है तो पूर्व के अनुभवों के आधार पर यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यदि उत्तर प्रदेश से दक्षिणपन्थी विचारधारा की सरकार का उन्मूलन हो जाता है तो मेरे विचार से उसके कुछ ऐसे परिणाम आएंगे कि-
1- स्थानीय छुटभैये नेताओं एवं उठायी-गिरो की नेता गर्दी बढ़ जाएगी।
2-मुस्लिम कट्टरपन्थ का दुष्प्रभाव बढेगा।
3-भारत की परम्परागत सामाजिक अवधारणाओं के विरुद्ध कम्युनिज्म के दृष्टिकोण का दुष्प्रभाव बढेगा जिसके प्रतिक्रिया स्वरूप दक्षिणपन्थी कट्टरवाद के बढ़ने का खतरा भी बढ़ जाएगा।
4- भारत की जैसी समाजवादी अवधारणा है उसके अनुसार तो यहाँ अर्थव्यवस्था का सन्तुलन और भी ज्यादा बिगाड़ जाएगा।
5-राजनीतिक अस्थिरता बढेगी।
6-मेरठ के सोतीगंज जैसे चोर बाजार फिर विकसित हो जाएगे।
नरेन्द्र सिंह
9012432074
